आखिर जनपद में व्याप्त भ्रष्टाचार का जिम्मेदार कौन?*
*भ्रष्टाचार : त्राहिमाम त्राहिमाम*
अंबेडकर नगर
जनपद के अंदर विभागों में भ्रष्टाचार की जड़ों को को देखें तो शर्म आती है, की जनपद के अंदर विभागों में भ्रष्टाचार के चपेट में मात्र सरकारी धन का स्वाहा हुआ है, भ्रष्टाचार के असाधारण उदाहरण हम उन्हें मान सकते हैं जिनकी चपेट में आकर आम जनजीवन प्रत्यक्षरूप से प्रभावित होता है, ग्राम पंचायत, जनपद, नगर पंचायत क्षेत्र में चल रहीं सरकारी योजनाएं, नरेगा, पीएमजेएसवाय, मध्यान्ह भोजन, बीपीएल कार्ड योजना, आंगनबाडी केंद्र, इत्यादि योजनाओं में चल रहे तथाकथित भ्रष्टाचार की चपेट में सीधे तौर पर आम जनजीवन है । जनपद में शहरी व ग्रामीण दोनों क्षेत्र में भ्रष्टाचाररूपी वायरस फ़ैल चुका है जो दिन-ब-दिन लोकतंत्ररूपी ढांचे को क्षतिकारित कर रहा है, सिर्फ सरकारी क्षेत्रों में ही नहीं वरन व्यवसायिक व सामाजिक लगभग हरेक क्षेत्र में भ्रष्टाचार वृहद पैमाने पर फल-फूल रहा है, कालाबाजारी, जमाखोरी व मिलावटखोरी भी भ्रष्टाचार के ही नमूने हैं । ... भ्रष्टाचार रूपी महामारी की जड़ क्या है, कौन इसके लिए जिम्मेदार है, किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले ही दम तोड़ती नजर आती है दम तोड़ना महज इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता, वो इसलिए कि भ्रष्टाचार के लिए शुरुवाती स्तर पर भ्रष्ट राजनैतिक सिस्टम को जिम्मेदार ठहराया जाता है, फिर सरकारी मोहकामों को, फिर संयुक्तरूप से दोनों को अर्थात भ्रष्ट नेता-अफसर दोनों को जिम्मेदार माना जाता है, किन्तु चर्चा के अंतिम पड़ाव तक पहुंचते पहुंचते भ्रष्टाचार के लिए आम जनता को दोषी ठहरा दिया जाता है, आम जनता को दोषी ठहराने के पीछे जो तर्क दिए जाते हैं वह भी काबिले तारीफ होते हैं। काबिले तारीफ़ इसलिए कहूंगा, तर्क यह होता है कि यदि जनता रिश्वत देना बंद कर दे तो भ्रष्टाचार स्वमेव समाप्त हो जाएगा अर्थात जनता रिश्वत न दे, रिश्वत मांगने वालों का विरोध करे, कालाबाजारी व मिलावटखोरी का विरोध करे, भ्रष्टाचार से जनता लड़े तो भ्रष्टाचार की हिम्मत ही कहां जो पांव पसार सके। सीधे तौर पर कहें तो चर्चा-परिचर्चा पर भ्रष्टाचार के लिए आमजन को ही जिम्मेदार मान लिया जाता है तात्पर्य यह कि जनपद में व्याप्त भ्रष्ट व्यवस्थाओं के लिए कहीं न कहीं आम जनता ही जिम्मेदार है। ठीक इसी प्रकार सड़क पर जब किसी आम नागरिक की गाडी ट्रेफिक पुलिस द्वारा रोक ली जाती है तब आमजन १००, २०० रुपये दे-ले कर बच निकलने का प्रयास करता है और सफल भी हो जाता है, यहां पर तर्क यह दिया जाता है आमजन आखिर रुपये देता क्यों है ? तात्पर्य यहां भी वह ही भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहरा दिया जाता है । इसी क्रम में जब आमजन को जाति प्रमाणपत्र या निवास प्रमाणपत्र बनवाने के लिए हजार, पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं तब भी वह ही दोषी माना जाता है । हद की स्थिति यहां भी नजर आती है जब म्रत्यु प्रमाणपत्र बनवाने, पेंशन फ़ाइल को आगे बढ़वाने, इंश्योरेंश क्लेम के लिए, पोस्ट मार्म के लिए तथा अन्य सभी तरह के प्रशासनिक कार्यवाहियों के क्रियान्वन के लिए रुपयों का जो अनैतिक लेन-देन होता है उसके लिए भी आमजन को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है । हम मान लेते हैं कि भ्रष्टाचार के लिए आमजन जिम्मेदार है सांथ ही सांथ यह सवाल भी उठता है कि इन गंभीर तर्कों को सुनकर हम आमजन को दोषी क्यों न मानें ! हम घटनाक्रम के सिर्फ एक पक्ष पर ध्यान देते हैं कि आमजन ने रिश्वत के रूप में रुपये दिए हैं इसलिए वह जिम्मेदार है, किन्तु हम दूसरे पक्ष को नजर अंदाज कर देते हैं कि आमजन ने रुपये आखिर क्यों दिए ! क्या वह खुशी खुशी रुपये लुटा रहा है या उसके पास रुपयों की कोई खान निकल आई है जिसे कहीं न कहीं तो खर्च करना ही हो तो ऐसे ही सही, या फिर उसे कोई ऐसा अलादीन का जिन्न मिल गया जो इस शर्त पर उसे रुपये दे रहा है कि आज के रुपये आज ही खर्च करने होंगे ! कुछ न कुछ ऐसी आश्चर्यजनक वजह तो जरुर ही होगी अन्यथा एक आम निरीह प्राणी क्यों रिश्वत देगा ! जहां तक मेरा मानना है कि उपरोक्त में से ऐसी कोई भी वजह नहीं है जिसके लिए आमजन को भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहराया जाए, मेरा स्पष्ट नजरिया यह है कि आमजन अर्थात अपने जनपद का एक आम आदमी, वर्त्तमान मंहगाई के समय में जिसके जीवन-यापन के खुद ही लाले पड़े हुए हैं वह बेवजह रुपये क्यों बांटेगा, वह हालात से तंग आकर, मजबूर होकर, व्यवस्था से त्रस्त होकर, मरता क्या न करता वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए किसी भी तरह के भटकने व विलंब से बचने के लिए तथा सांथ ही सांथ तरह तरह के मुश्किल हालात से बचने के लिए ही ले-दे कर अपना काम निपटाना चाहकर इस भ्रष्ट उलझन में उलझ जाता है । एक आम आदमी वर्त्तमान भ्रष्टाचार के लिए कतई जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, और न ही वह जिम्मेदार है, अगर कोई जिम्मेदार है तो वे ख़ास सक्षम लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बना कर रखा हुआ है ! *"मजबूरियों को भ्रष्टाचार का नाम न दो यारो / सच ! सीना तनने लगेगा भ्रष्टाचारियों का !"*
हमें यह सम्मान दिलाने में सबसे ज्यादा अहम भूमिका हमारी पुलिस की है, देशभक्ति और जनसेवा का नारा लगाने वाली भारतीय पुलिस जनसेवा के स्थान पर आत्म सेवा में जुटी है। इनके साथ नगरनिगम से लेकर अस्पताल, राशन, तहसील और नजूल, स्कूल –कालेज, मक़न–दुकान हर जगह रिश्वत।ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार अब एक रस्म बन गया है, जिसकी अदायगी के बिना कोई भी काम पूर्ण नहीं होता। तीव्र गति से बढ़ाते इस भ्रष्टाचार के दानव के कद में दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की हो रही है। राज नेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों के साथ कर्मचारियों का एक ऐसा गिरोह इस जनपद में बन गया है जो बिना किसी संवाद और प्रशिक्षण के सिर्फ एक ही भाषा समझता है और वो है भ्रष्टाचार। इस भ्रष्टाचार में धर्म, जात-पात, अगडे-पिछड़े जैसी कथित सामजिक बाधायें भी अड़े नहीं आती, यह सब एक है।भ्रष्टाचार का सांप घटिया किस्म के नेताओं और आधिकारियों के आस्तीन में पल रहा है, लेकिन वह सांप इनको डसने के बजाय जनपद को ही खा रहा है। इस कथित लोकतंत्र में किसी को भी यह की फुर्सत नहीं है कि क्यों और कैसे अफसरों की संपत्तियां बेहिसाब बढ़ रही है। भौतिक सुख सुविधा की लालसा और प्रतिद्वंदिता के इस युग में ईमानदार और चरित्रवान व्यक्ति को आज मूर्ख समझा जाता है। अब इमानदार वो है जी रिश्वत लेकर आपका कम कर दे और बेईमान वो जो रिश्वत लेकर भी आपका कम ना करे।आधिकारियों और राज-नेताओं के साथ भ्रष्टाचार को उजागर करने वाला मीडिया भी इस गंदगी में मैला होता जा रहा है। पैसे देकर खबर के पैकेज अब आम है, जिसे वर्तमान व्यवस्था का अंग मान लिया गया है। पत्रकरिता मिशन से प्रोफेशन में कब बदल गयी पता ही नहीं चला, लेकिन अब पत्रकरिता भी व्यवसाय हो गया है जिसे सब स्वीकार कर चुके है।
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